भाषा की नई क्लासिक सिनेमा समझ / भोजपुरी की
पहली फिल्म
''गंगा मइया तोहें पियरी चढ़इबों'' के बारे में / परिचय दास
हम अधिक पैसा बनाने के लिए फिल्में नहीं बनाते
हैं। हम और फिल्में बनाने के लिए पैसा लगाते हैं। - ‘’वाल्ट डिज़्नी’’- गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबों ' (भोजपुरी की पहली फिल्म- 22 फरवरी, 1963 को प्रदर्शित) सिनेमा में विशिष्ट
क्लासिक शैली एक रचनात्मक अभिव्यक्ति है। प्रत्येक महान फिल्म की एक अलग
शैली होती है और कई बार सबसे यादगार फिल्में ऐसी होती हैं जो दर्शक को एक ऐसा
अनुभव देती हैं जो उन्हें उन चीजों को देखने और महसूस करने देती हैं जो हम सामान्य
रूप से नहीं कर सकते थे। यह फिल्म
अभिव्यंजक दृश्यों में वास्तविक अर्थ के साथ जो प्रेम -कथा है
वह फिल्म में शैलीगत स्पर्श के साथ
अद्वितीय फिल्म-सामग्री को परोसती हुई ध्यान आकर्षित करती है, जिसमें सामजिक विद्रूपताओं को चुनौती दी गयी है।
इसमें गाँव की मानसिकता, राजनीति, गाँव -शहर के अन्तर्संबध, विधवा के दुःख, दहेज, आजीविका
की समस्या, भारत के पूर्वी
जन के महाकाव्यात्मक जीवन के समाजशास्त्र
के साथ लोक रंजकता आदि उत्कृष्टता से आरेखित है। फिल्म की हर कथा ने अपने वर्णन को अलग और अनोखे
परिप्रेक्ष्य में देखा है और जो लोग उस परिप्रेक्ष्य को अपनी कहानी और
दृश्य-विधियों में अनुवाद करते हैं वे
मानुष- चिह्न को कभी नहीं छोड़ते । शैली
फिल्म के कथ्य को अभिभूत कर सकती है जिससे फिल्म भावनात्मक रूप से स्पष्ट हो जाती
है लेकिन जब दोनों संतुलित हों तो एक अद्भुत और अजेय बल पैदा कर सकते हैं। फिल्म
में नायक -नायिका का सहज प्रेम, अमीर लड़के और गरीब लड़की के परिवारों के बीच की दूरी, दहेज , लोकलाज ताड़ीखाने में अपना धन व समय बर्बाद करना , ज़मीदार तथा सूदखोर व्यवस्था , अनमेल विवाह , शादी होते ही बीमार पति की मृत्यु, ससुराल में नायिका को त्रास दिया
जाना, नायिका का इस
कुटिल सिस्टम से भागने को विवश होना, फिर एक नए सिस्टम -कोठा में फंस जाना , इतने वर्षों बाद बनारस में कोठे पर
नायक-नायिका का सांयोगिक मिलन आदि इस फिल्म के सूत्र हैं| फिल्म के प्रमुख कलाकार - कुमकुम, असीम कुमार, नाज़िर हुसैन, लीला मिश्र ,रामायण तिवारी, पद्मा खन्ना, हेलेन , भगवान् सिन्हा, जगन्नाथ शुक्ल, टुनटुन आदि। निर्देशन
- कुंदन कुमार, कथा- नाज़िर
हुसैन, गीत- शैलेन्द्र
, संगीत- चित्रगुप्त, निर्माण- विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी (निर्मल
पिक्चर्स) । गायन- सुमन
कल्याणपुर, लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी, उषा मंगेशकर।
"गंगा मइया तोहे पियरी चढइबों "
की जादुई प्रस्तुति बेहतर डिजाइन की एक प्रतिमा- कल्पना है जो कैमरे के काम, चरित्र-चित्रण और दृश्य प्रभावों की
काल्पनिक शैली के कारण बड़े हिस्से में अतिविश्वसनीय रूप से लोक स्मृति में है। यह फिल्म एक गीत के साथ आरम्भ होती है, जिसमें दर्शकों को वास्तविकता को जानने और पारम्परिकता में
स्मृति -प्रवेश के लिए कहा गया है और यह अनुभव अब तक की सबसे रोमांटिक और
वास्तविक जादुई कहानियों में से एक है। 'हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबों , सइयाँ से करि दे मिलनवां हो राम' गीत अत्यंत मांगलिकतापूर्ण व गंगा
माँ के आश्रय की कामना तथा निर्गुण तत्त्व
की ओर इशारा भी है । वह अनेक अर्थों से सम्पन्न है, अनेक आयामी है इस । ब्लैक एंड व्हाइट
चल-चित्र में एक गाम्भीर्य व सौंदर्य है।
दृश्य- पैटर्न और सौंदर्य ग्रामीण
वास्तविकता के उपक्रम को अप्रत्याशित रूप से देखने की एक
शृंखला मिलती है। शिल्प दृष्टि से
शूट की गई भोजपुरी की इन
क्लासिक फिल्मों को समझने
के लिए सिनेमाई दृश्य -माध्यम
को समझना आवश्यक होगा । केवल छायांकन की
खूबियों के आधार पर फिल्म दृष्टि पर कमेंट करना कठिन है क्योंकि श्रेष्ठ दृश्य-
माध्यम को विभिन्न अन्य शक्तियों के
माध्यम से ही देखा जाना चाहिए । जब कि इस खूबसूरत फिल्म में फोटोग्राफी में एक
प्रतिभाशाली निर्देशक कुंदन कुमार के हस्ताक्षर हैं साथ ही नाज़िर हुसैन की
कथा-दृष्टि व अभिनय । बेहतरीन सिनेमैटोग्राफिक उपलब्धियों पर समझने व विचार करने की प्रक्रिया में कुछ बातें समझने की हैं। इस फिल्म की
सिनेमैटोग्राफी में तत्कालीन सिनेमाई
प्रौद्योगिकियों और अन्य नवाचारों के स्तर पर असाधारण प्रगति का शिल्प लक्षित होता है। इसमें फिल्मों की क्षमताओं का शिखर भी पा
सकते हैं।
आर के पंडित जैसे सिनेमैटोग्राफर से फिल्म में जीवन की भावनात्मक
रूप से गुंजायमान और शक्तिशाली छवियों
की निर्मिति सम्भव होती है । कुंदन जैसा निर्देशक फिल्म में विभिन्न तकनीकों का उपयोग करता है - संगीत व
संवाद को लेकर विभिन्न कोणों के साथ वह
खेलता है , फिल्म के फ्रेम
और विविधवर्णी छवियाँ यह अनुभव
कराने के लिए पर्याप्त होती हैं कि वे अभिनेता- अभिनेत्रियों की
दृष्टि का खटमिट्ठा उत्पाद हैं।
यहां फिल्म-दृश्य महज़ नाटक से
ज्यादा है। प्रत्येक छवि अपने चरित्र को
मानवता से जुड़ी भावनात्मक स्थिति
को दर्शाती है - प्रत्येक झलक या स्मृति, आशा, हताशा और संघर्ष की एक झलक के साथ दिखती है । सूक्ष्मता के साथ
व्यक्तिपरकता व्यक्त करने के लिए भी
सिनेमैटोग्राफी का उपयोग किया गया है । कह सकते हैं कि एक विज़ुअल कॉन्सेप्ट को कला के एक उल्लेखनीय
आकार में बदल दिया गया है। हमेशा यह समझ में आता है कि कुंदन कुमार फिल्म बनाने की प्रक्रिया के दौरान लोक अनुभव
से सीखते हैं: किसी चीज को कैसे लेंस करना है,
कहां देखना है, क्या देखना है, क्या नहीं आदि । यह पर्याप्त है
(निर्देशक के लिए, कम से कम)
कि फिल्म में प्रस्तुत अंधेरे व उजाले भी
महाकविता बन जाते हैं । महाकाव्यात्मक
पैमाने पर दृश्य- चित्रण, चमकदार दिखने पर भी सहज होता
है: अंधेरा चमकता और
सम्मोहित करता है। गाँव में असीम
कुमार व कुमकुम के शुरुआती प्रेम चित्रण
में दर्शाई कोमलता के साथ गाँव के दृश्यों को लयबद्ध कविता की तरह प्रस्तुत किया
गया है |
जब हम "गंगा मैया तोहे पियरी चढइबों "
के जादू के बारे में बात करते हैं तो यह अक्सर लेखक की कथा और निर्देशक
की दृश्य -कविता के संयोजन के बारे में है। हालांकि, यह एक विशिष्ट सिनेमैटोग्राफी है जो दोनों को एक साथ पकड़े
हुए गोंद के रूप में कार्य करती है। बहुत ही व्यावहारिक स्तर पर, इसमें दिन और रात के दृश्य तथा
प्रकाश व्यवस्था आदि महत्वपूर्ण प्रदर्शन के रूप में कार्य करते हैं - स्पष्ट रूप
से विभिन्न आयामों को उजागर करने और आविष्कारशील बदलावों की आपूर्ति करने के लिए -
जो कि ग्राम-कथा के आयाम को पृष्ठभूमि में
पनपने का अवसर देती है और ग्राम्य संबंधों को शीर्ष पर उठने के लिए संबल । स्मृतियों के आरेखन में इस फिल्म में, प्रकाश अपनी धुली हुई सुंदरता में एक
नाजुक जैसा है और दृश्य निर्मित करता है।
परिणाम न केवल फिल्म के विषयों को प्रतिबिंबित करता है; यह प्राथमिक कहानी कहने वाला उपकरण
भी बन जाता है। "गंगा मइया तोहे ...
" एक ऐसी फिल्म बन गई है जो एक ही
समय में अंतरंग और सामाजिक दोनों तरह से जीवन के उद्घाटन का हेतु बन गई है।
यह आश्चर्यजनक नहीं है कि कुंदन कुमार की
इस भोजपुरी फिल्म में सावधानीपूर्वक योजना पर विचार किया
गया है। वे गाँव की असंभव परिस्थितियों
में फिल्म के गढ़े हुए अनेकानेक रूपों को
सम्भव बनाते हैं । बदलते और विविध ऋतुओं की स्थिति के तहत किसी न किसी स्थान पर
घूमते हुए, किसी तरह कोहरे, प्रकृति, समुद्र और सूरज की रोशनी को प्राकृतिक तथा आंशिक
रूप से अपने स्टूडियो के उपकरण में बनाकर
दृश्यों को सहज ही उतार लेते हैं । उनका निर्देशन
हमेशा उद्देश्य के एक दिव्य व सौंदर्य भाव के साथ चलता है, वे
जानते हैं कि अपने संभावित नाट्य
-कौशल के हर आकार के लिए किसी स्पेस को कैसे बढ़ाया जाए । रात के दृश्यों को एक
चमकदार धूमिल धुंध में लेपित किया गया है
अर्थात दृश्यों को एक कोमल व संवेदनशील
मन में भिगोया गया है जो सक्रिय रूप से
अन्याय का विरोध बन गया
है । इन छवियों के लिए एक निश्छल
सिनेमाई ईमानदारी है जो "गंगा मइया
तोहे .." को शूट
करके क्लासिकी उत्पन्न करती है । इस फिल्म का संगीत कला के दृष्टिकोण से फिल्मों के संगीत- अध्ययन के लिए एक मंच जैसा है। लोकमन, लोकमंगल, संवेदनशील,
ऐतिहासिक, व्यवस्थित, संज्ञानात्मक और नई दृष्टि भाषा के
विश्लेषणात्मक उपकरण और कार्यप्रणाली
आदि आगामी फिल्मों के अध्ययन के लिए प्रासंगिक और आवश्यक हैं, जो स्रोत अध्ययन, विश्लेषण, सिद्धांत और आलोचना के माध्यम से
दस्तावेज़ अभ्यास और प्रबुद्ध दोनों की तलाश करते हैं। चित्रगुप्त ने केवल लोक का
नुवाद अपनी फिल्म में नहीं किया है। प्रत्येक गीत की संगीत संरचना में एक आधुनिक
किन्तु पारम्परिक मन का पूत है जो उसे समकालीन बनता है। बिदेसिया का प्रयोग भी है , नाच के विविध उपादान हैं तथा करुणा
से रससिक्त अभिव्यंजना भी। ऐसा संगीत जो युगों तक मनुष्य के मन को भिगोता रहेगा | 'लुक छिप बदरा' गीत में संगीत की पूरी क्लासिकी है
किन्तु लोकसंपृक्तता के साथ , यह द्वंद्व आप को अन्यत्र दुर्लभ होगा | कुमकुम ने भोजपुरी की इस पहली फिल्म में ही
नृत्य का उत्कर्ष प्रस्तुत कर दिया है, एक अद्भुत मानदंड। वे कत्थक नृत्य
में प्रशिक्षित भी रही हैं | इसका यहां उपयोग ह। उनकी बारीक मुखमुद्रा व पद -चाप नृत्य की
प्रस्तुतियों की जान है। यद्यपि हेलेन ने
अपने नृत्य में जो चुटीलापन दर्शाया है वह भी फिल्म को गति देता है। यह फिल्म, 1960 -1962 के मध्य ग्राम्य एवं किंचित नगरीय
सोच व नवाचार का एक ज़रूरी उत्पाद है, ऐतिहासिक रूप से एक नाटकीय कला
का महत्त्वपूर्ण रूप व दस्तावेज़ है । 20 वीं शताब्दी के मध्य में उभरा, एक सामाजिक अनुवीक्षण है
जो निरंतर विकास की ओर अग्रसर है और आज तुलना करके देखिए, उस समय से वर्तमान का दिन कितना बदला हुआ है ! भोजपुरी के इस प्रारंभिक
चल-चित्र में संगीत की रसमयता ने फिल्म
संस्कृति में एक अनुकूलन को विकसित
किया। इसे ऑनस्क्रीन संगीत प्रदर्शन, संवाद और ध्वनि प्रभावों के साथ
संयोजित करने के लिए तकनीकों के विकास के
रूप में भी ले सकते हैं । लोक उपयोग या अनुकूलन पर बेहतर गीतों की मूल रचना पर ही संगीत की मेलोडी
का मूल्य
रखा गया था। इस प्रथा की परंपरा और
लयदारी व तकनीक को अब रेडियो, टेलीविजन, कंप्यूटर और अन्य संचार माध्यमों में
भी समान रूप से देख सकते हैं । एक ऐतिहासिक ढांचे में, न केवल अपनी स्वयं की साझा परंपरा के संदर्भ में यह फिल्म अपने समय
की संबद्ध कला माध्यमों से सर्वोत्तम
ग्रहण करती है बल्कि इसकी जड़ें और
विस्तार लोक जीवन , थिएटर और संगीत के अन्य क्षेत्रों में हैं : शास्त्रीय , उपशास्त्रीय और लोक में भी । नृत्य और संगीत के सम्मिलन के साथ-साथ नाट्य कविताओं के रूप में भी । पूर्वी ग्राम्य थिएटर और कला संगीत की
परंपराओं से संगीत मुहावरों का रस-बोध और संवेदन । लोक संगीत की विशिष्ट रचना के विकास में योगदान देने वाली
व्यापक और बहुपक्षीय इस फिल्म की
पृष्ठभूमि ने सिनेमा को गहरे
प्रभावित किया जो वास्तव में, क्षेत्रीय सिनेमा के बदलावों के साथ, भारतीय ध्वनि युग को प्रभावित करने के साथ , एक ऐसे अंतर्राष्ट्रीय फिल्म संगीत के वातावरण का निर्माण किया जो सहज है, प्राकृतिक है । भोजपुरी सिनेमा के लिए संगीत के विकास में योगदान देने
वाली इस
व्यापक और बहुपक्षीय पृष्ठभूमि ने भी भारतीय सिनेमा को प्रभावित किया। इस बहाने इस फिल्म ने
हिंदी की समान्तर सत्ता को विकसित किया अर्थात पहली बार किसी फिल्म की भाषा का
नाम- भोजपुरी लिखा गया। "गंगा मइया तोहे
...." फिल्म में
दृश्य रचना की वह प्रक्रिया अपनाई
गई है जिसे लाक्षणिकता, कथा संरचना, सांस्कृतिक संदर्भ और लोक रूप में
देखा जा सकता है। फिल्म में शब्दों, वाक्यांशों और छवियों सहित, आलोचनात्मक विश्लेषण का एक समकालीन
रूप है । ताड़ीखाने में नाज़िर हुसैन ताड़ी के भरुके ( पीने के पात्र ) को लक्षित
करके कहता है' एही भरुकवे में
कुल जमीन जायदाद बिका गइल। केतना गहिर ह
रे ई ( इसी कुल्हड़ में सारी ज़मीन- जायदाद नष्ट हो गई। कितना गहरा है
यह रे )' ? यह फिल्म
दृश्य-श्रव्य तत्वों को नवाचार की तरह शामिल करती है , इसलिए विश्लेषण के लिए एक नए आयाम का
परिचय देती है। फिल्म में ऐसा दृश्य बन गया है जिसमें अभिनेता, प्रकाश व्यवस्था, कोण, रंग आदि
सभी चीजें साहित्य में अनुपस्थित हो सकती हैं, लेकिन वे निर्देशक, निर्माता, या पटकथा लेखक की ओर से जानबूझकर इस
तरह पसंद की गई हैं - जैसे कि साहित्य के काम के लिए लेखक द्वारा चुने गए शब्द हों
! असीम कुमार का अभिनय सहज, सधा हुआ तथा फ्रेश लगता है। किंचित अभिनय नहीं
लगता। अभिनय का क्लाइमेक्स नाज़िर हुसैन में है , जिनकी वजह से यह फिल्म बनी। ऐसे लगता है कि वे
उसी गाँव के मूल निवासी हों और फिल्मों में कार्य ही नहीं करते | यह चरम उपलब्धि है | नाज़िर हुसैन भोजपुरी सिनेमा के
उत्कर्ष हैं | बाद में 'हमार संसार ' फिल्म में भी संगीत -कथा व अभिनय कि
त्रयी प्रस्तुत की उन्होंने , जिस पर समीक्षकों का अपेक्षित ध्यान नहीं गय। लीला मिश्र ने जहां माँ
की कोमलता व गरीबी को गहराई को क्लासिक अंदाज़ दिया है , वहीं तिवारी ने ज़मीदारी की क्रूरता
को उकेरा है जो कालांतर में ह्रदय परिवर्तन के माध्यम से
नायिका कुमकुम को बहू बना कर लाते हैं | पद्मा कहना का तो आरम्भ है लेकिन उनकी वाग छवि
से इसी फिल्म से उनकी क्षमता का पता चलता है |
खैर , इस फिल्म ' गंगा मइया तोहे पियरी '
को गहराई से
देखें तो इसमें लोकसाहित्य और फिल्म के समान तत्व शामिल हैं। इसमें प्लॉट, पात्र, संवाद, सेटिंग्स, प्रतीकात्मकता है और जैसे साहित्य के विविध तत्त्वों का उनके इरादे और प्रभाव की दृष्टि से इस
फिल्म का विश्लेषण सम्भव है। इस फिल्म के
सिमेंटिक विश्लेषण (संकेतों और प्रतीकों के पीछे अर्थ का विश्लेषण ) करें तो
इसमें रूपक, उपमा और प्रतीकवाद शामिल हैं। बहुत
कुछ नाटकीय होने की जरूरत नहीं है; इस फिल्म में
कि आप अपने दैनिक जीवन में सबसे छोटे संकेतों से कैसे जानकारी को
एक्सट्रपलेट (वाग्विश्लेषित) करते हैं। उदाहरण के लिए, क्या विशेषताएं आपको किसी के
व्यक्तित्व के बारे में बता सकती हैं? किसी की उपस्थिति के रूप में कुछ सरल उनके बारे
में जानकारी प्रकट कर सकता है।जैसे इस फिल्म में बेमेल शादी के निहितार्थ व सामाजिक संकेत। यह महत्त्वपूर्ण
है कि पात्रों के निर्माण के लिए इन संकेतों
का उपयोग गझिन संरचना के रूप में
किया गया है। पात्रों की सापेक्ष भूमिका या कई पात्रों के बीच संबंध दर्शाये गए हैं | फिल्म के लगभग अंत में नायिका कुमकुम नायक असीम
कुमार से कहती है कि अगर तुम पंचायत से न डरे होते और उसी समय मेरा हाथ थाम लेते
तो आज हमें-तुम्हें यह दिन न देखना पड़ता !
कोठे पर भी वह अपने मन व शरीर को रक्षित रखती है और
कहती है कि श्याम , तुम्हें यहां
मेरा होना बुरा लगता है किन्तु तुम्हें
हमारे प्रेम को समय देना व समाज-प्रतिरोध
के लिए खड़ा होना ज़रूरी था ! इस फिल्म में
प्रेम, स्वतंत्रता, शांति, सामाजिक प्रतिरोध, स्त्री के जेनुइन पक्ष आदि को गम्भीरता से
दर्शाया गया है । वे फिल्म में साहित्यिक उपकरण को ढूंढना व समझना एक आन्तरिक प्रक्रिया का उपयोग करना है। फिल्म में दृश्य- विवरण का तरीका साहित्य के समान है। हम वस्तुओं या कार्यों के पीछे गहरे अर्थ के बारे
में सोच सकते हैं, फिल्म इस
स्थिति पर लाती है ! इसकी कथा संरचना में
कथानक संरचना, चरित्र प्रेरणा
और सामाजिक रूढ़ियों से विद्रोह, हृदय परिवर्तन आदि विषय शामिल हैं। साहित्य की नाटकीय संरचना : शिल्प
-प्रदर्शन , आगामी कथा में रुचि बना रहना , ताक़तवर लोगों से संघर्ष जनित
कार्रवाई, कोठे से निकाल कर जीवन में ले जाने व प्रेम के
स्थापत्य को संकल्प की तरह लेना आदि महत्त्वपूर्ण है । इस फिल्म को तीन संरचनात्मक विधान के रूप में ले सकते हैं : एक : प्रेम का अंकुरण व विकास, दो: अच्छाई का संकल्प और तीन
: व्यवस्था व समाज से टकराव । कथा संरचना
के विश्लेषण में देखें तो फिल्म की
कहानी इन तीन तत्त्वों में समाहित है । "गंगा मइया तोहे ...'' फिल्म में हम
वस्तुओं / घटनाओं को सांकेतिक संरचना के संदर्भ में रखकर प्रतीकात्मकता और
कथात्मक संरचना का उपयोग कर पाते हैं। उदाहरण के लिए, गंगा मइया को
पियरी चढ़ाने पहली उपस्थिति को
मुहावरे व भोजपुरी जीवन के लोक संदर्भ में देख सकते हैं । प्रियतम से मिलन का
संदर्भ एक निर्गुण गीत बन जाता है। इस
फिल्म के निर्माण की संस्कृति, समय और स्थान के बारे में सोचें तो कई तथ्य
सामने आते हैं । फिल्म को उस संस्कृति के बारे में देखा जाना चाहिए जिसमें उसे रचा गया है।
भोजपुरी संस्कृति ने इसे बनाया है
।इस समयावधि के सामाजिक और राजनीतिक सरोकार क्या थे, फिल्म यह भी बताती चलती है। कुंदन कुमार को निर्देशक के रूप में देखें तो इस पहली भोजपुरी फिल्म
में उनके करियर का प्रारम्भिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। क्या यह निर्देशन की उनकी सामान्य शैली के साथ
संरेखित है, या यह एक नई
दिशा में आगे बढ़ता है ? नागरिक अधिकार, विधवा विवाह , प्रेम के लिये सामाजिक यथास्थिति को न मानने आदि के संदर्भ में प्रासंगिक दृष्टिकोण का
विश्लेषण इस फिल्म में कर सकते हैं | इस
फिल्म में रचना-तत्त्वों की
व्यवस्था का विश्लेषण है - अनिवार्य रूप से, दृश्य-श्रव्य तत्वों का विश्लेषण तथा साहित्यिक
विश्लेषण , जो सबसे अलग इस
फिल्म को विश्लेषित करता है। इस तरह
के विश्लेषण का महत्वपूर्ण हिस्सा न
केवल दृश्य-तत्त्वों की पहचान करा रहा है, बल्कि उनके पीछे के महत्व को भी समझा रहा है। यह
फिल्म जिस तरह से दिखती है उसी तरह से अपने लक्ष्य को पाने की कोशिश करती है
और वह सफल भी होती है। इस फिल्म के ऑडिओ- विज़ुअल
तत्त्वों के विश्लेषण किए
जाने पर कॉस्ट्यूम, सेटिंग, लाइटिंग, कैमरा एंगल्स, फ्रेम्स, स्पेशल इफेक्ट्स, कोरियोग्राफी, म्यूजिक, कलर वैल्यूज़, डेप्थ, कैरेक्टर्स का प्लेसमेंट आदि की गरिमा का व गहाराई का भान होता है। विशिष्ट
फिल्म शब्दावली की विश्वसनीयता का उपयोग करने वाली यह फिल्म है लेकिन इसने अपने दर्शकों पर भी विचार किया है ।
यदि दर्शकों के लिए सुलभता देखें तो समझें कि इस फिल्म में लोक व सृजनात्मक शब्दों
का क्या अर्थ है। लोक को लक्ष्य में रख कर ही इसकी सेट डिज़ाइन की गयी है , जो सफल हुई है और इसे तत्कालीन हिंदी
फिल्मों से अलग करती है और इसे क्लासिक
बनाती है | फिल्म को
ध्यान से देखें तो कुछ दृश्यों के स्क्रीन
कैप्चर बनाने से लोक व आजादी के बाद के
गाँव के रंगों के विस्तृत विश्लेषण, अभिनेताओं की स्थिति, वस्तुओं की उपस्थिति आदि में मदद मिल
सकती है। साउंडट्रैक को सुनना भी मददगार हो जाता है, खासकर जब विशेष दृश्यों के संदर्भ में देखें ।
मूड बनाने के लिए प्रकाश व्यवस्था का उपयोग कैसे किया गया है? क्या फिल्म के दौरान मूड किसी भी
बिंदु पर बदल जाता है और उस बदलाव को मूड में कैसे बनाया गया है श्रेष्ठ संवाद
फिल्मों के असीम सुखों में से एक है और यह अक्सर इस फिल्म के सबसे यादगार तत्त्वों
में से एक है। इस फिल्म के संवाद किसी समकालीन थिएटर के संवाद की तुलना में कम
रचनात्मक नहीं हैं । अच्छे, स्वाभाविक लगने
वाले संवाद देने में सक्षम है यह फिल्म।
दृश्य की ही तरह, पटकथा में
संवाद के कई विशिष्ट कार्य इस फिल्म में
हैं। यह नाज़िर साहब के भोजपुरी पर पकड़ व समकालीन दृष्टि को भाषा के उपयोग
की संगति को दिखाता है | इसका प्राथमिक कार्य नाटकीय है, लेकिन वह स्वाभाविक है | यही भरत मुनि भी कहते थे। यानी स्वाभाविकता से कहानी को आगे ले
जाना। इस फिल्म में कथा के अनेक स्तरीय रंग बोलते हैं क्योंकि उनमें स्थानीयता के साथ पूरा देश दिखता है , केवल स्थानिकता नहीं | यानी भोजपुरी के साथ पूरा भारत। कोई
कट्टरता नहीं बल्कि पूरकता । व्यवहार में यह उतना सरल नहीं है जितना लगता है। दृश्य का वास्तविक उद्देश्य व्यक्ति व समाज के
प्रश्नों का अन्वेषण रहा है जिसे नम्रता से
कहा जा सकता है कि वह हमारे युग का आख्यान है। इस फिल्म के चरित्र के गठन में यह देखा गया है
कि कभी भी आवश्यकता से अधिक 'कहने' की आवश्यकता नहीं पड़ी, इस फिल्म मे, क्योंकि अक्सर इसमें महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा स्वयं
इसके कथानक कर लेते हैं जो बहुत ही संवेदनशील हैं। जैसा कि वास्तविक जीवन
में, भाषा अक्सर
किसी दृश्य की भावना को विस्थापित या विचलित करने का एक तरीका है और फिल्म में जो
नहीं कहा जा पाता वह भी अक्सर उतना ही
महत्वपूर्ण है ।
रचनामक संवाद
द्वारा इस फिल्म में तात्कालिक जरूरतों और इच्छाओं को प्रकट किया गया है और
यह सब नाटकीय संदर्भ में सम्भव हो पाया
है। क्योंकि कहानी लेखक को व सामाजिक विषयों को उजागर करने में पूर्ण सफलता मिल पायी है तथा कहानी के विवरण की व्याख्या करने में वह
सक्षम हो पायी है। संवाद-चरित्र को प्रकट
करेगा, जो कहा गया है
और यह कैसे कहा जाता है, दोनों में
संवाद-चरित्र को प्रकट करेगा, जो कहा गया है और यह कैसे कहा जाता है , दोनों में चरित्र के बजाय बोल रहा है। इस फिल्म
में एक अच्छी बातचीत जो इन सभी चीजों को एक साथ की गई है --- संवाद-चरित्र को प्रकट करना अर्थात जो कहा गया है और यह कैसे कहा जाता है , दोनों में संवाद-चरित्र को प्रकट
करना । यह स्वाभाविक है और प्रत्येक पात्र को अलग आवाज है । जैसे टुनटुन के आते ही
एक अलग हास्य व वातावरण की निर्मिति। गरिमापूर्ण
संवाद इस फिल्म को सहज और यादगार
बनाता है। संवादों में साहित्य भी है, साहित्य का उल्लेख किये बगैर | सहजता के साथ, लोक मन के साथ, गंवईं आदमी की आत्मा को दर्शाते हुए , समझते हुए। यह आश्चर्यजनक, आनंददायक और प्रीतिकर है तथा
अपने पात्रों की अनूठी आवाज को प्रकट करती
है । इन गुणों का वर्णन करना काफी आसान है
लेकिन जिस तरह की निर्मिति इस फिल्म की है वह किसी फिल्म के उत्पादन
के लिए बहुत कठिन है। अधिकांश लेखकों के लिए-, प्रभावी संवाद बनाना चरित्र - विकास
-प्रक्रिया का एक उप-उत्पाद है। 'गंगा मैया तोहें' में जिस तरह से एक चरित्र
बोलता है वह चरित्र की पृष्ठभूमि और उनके व्यक्तिगत मेकअप के कारकों से निर्धारित
होता है। इस फिल्म में
रिश्ते बखूबी उभारे गए हैं। बेटी-माँ, बाप -बेटी, प्रेमी-प्रेमिका, ससुर-बहू, सहेलियों के रिश्ते। मेरा मानना है कि फिल्म में
संवाद-स्थिति को बढ़ाने की इच्छा से प्रेरित हुए
हैं, ये सम्बन्ध ।
परिप्रेक्ष्य, चरित्र की
पृष्ठभूमि, शक्ति के संतुलन और नाटकीय स्थिति के लिए स्वाभाविक और
उपयुक्त संवाद का निर्माण करने एवं लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास इसमें संभव
हुआ है । जब हम इसे विश्लेषित करते हैं, तो ऐसा लगता है कि यह संवाद जिसने
बोला है उसे केवल वही
पात्र बोल सकता था, जिससे बुलवाया
गया है, यह इस फिल्म की
अद्भुत विशेषता है । लोक दृश्य पर पात्रों का
अभिनय नाटक नहीं लगता । दृश्य में सहजता व प्राकृतिकता लाने, फिल्म-गति को विकास देने के लिए संगीत के प्रभाव
को चलचित्र में अच्छी तरह से दर्शाया गया
है । शुरुआत में कुछ स्थान - जो अपेक्षित
और बहुत अधिक अपेक्षित नहीं हैं - गीतों की पूर्णता को इस कथात्मक फिल्म में क्रॉप किया गया है। यह भी एक कौशल है ।
शायद सिनेमा के इतिहास के सबसे रंजक, मधुर संगीत संग्रहों में से यह एक फिल्म है जिसमें
लोक-आभा की क्लासिकी के अंतरिक्ष में गाढ़े भावनात्मक संयोग व वियोग की ऊष्मा को देखा जा सकता है । आरम्भ में नायिका के साथ
नायक को एकान्त में गाँव की दृश्यावली में दिन और रात्रि- समय के संपर्क के बीच
राग- भाव की अंतहीन यात्रा में देखा जा
सकता है । 70 के दशक के
मध्य में
इस पहली भोजपुरी फिल्म पर तत्कालीन सिनेमाई टिप्पणियों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जिस पर तथाकथित मुख्य धारा के सिनेमा के गुणी
जनों का अपेक्षित आकर्षण शायद संभव नहीं हो पाया । फिल्म अपनी ही प्रामाणिकता
निर्मित करती है, फार्मूले में नहीं फंसती गहन
संवेदनशील, गाँव की
राजनीति को दर्शाती हुई, गंभीर रूप से
आशावादी और पूरी तरह से उस दौर की
प्रयोगात्मक फिल्म निर्माण शैली में। यह एक मांगलिक पक्ष है: दर्शकों को खुशी होती है जिसमें वे
कलाकारों के आँसू, हँसी - मुस्कान से साधारणीकृत हो जाते हैं । सिनेमा के लिए लोक संगीत के अधिक असंगत मेलों
में से एका होना चाहिए, वह 'गंगा मैया तोहें पियरी' में सम्भव हुआ है । यह एक ऐसी फिल्म है, जो प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों
पर भी आधारित है, अर्थात पृथ्वी, फूलों,
सूरज, धरती, नदी, परम्परा के बारे में आसक्त- अनासक्त भाव से
विकसित होती है। कथा गाँव से शहर में जाती
है, पहचान
बदलती है और अपनी स्वाभाविकता नहीं खोती ।
नायिका एक अराजकता के जीवन से बाहर निकलना चाहती
है, रास्ता नहीं , उसमें बेचारगी के साथ और भी फँसती
जाती है । नायक की अलग बेचैनी है । एक दृश्य में, नायक गाँव , पितृसत्तात्मक समाज की भयावहता से आक्रान्त होते हुए क्षुब्ध दिखता है, जिसमें वह पूरी तरह से वह युवा पीढ़ी
की आवाज़ बन सकता था किन्तु उस समय नहीं बन पाया । उसका
विद्रोही नायकत्व फिल्म के बाद वाले हिस्से में दिखता है । .......... गीत को
उत्फुल्ल मन से गाते और नृत्य करते हुए वे एक-दूसरे के लिए अपना गहरा प्यार दिखाते
हैं। यह पूरी फिल्म
एक ग्राफिक उपन्यास है जिसे 'फ़िल्मेबल'
कहा जा सकता है
। फिल्म की भाषा में सिर्फ लोक नहीं
अपितु समकाल के जटिलता के संचार
के प्रयास हैं : गाँव व शहर को लहराती
एक पूरी भाषा है जिसे भोजपुरी के
शब्दों, वाक्यांशों, व्याकरण, विराम चिह्न, नियमों और सामान्य प्रथाओं सहित सीखा
जा सकता है । अर्थात जितना अधिक आप इसे
पूरी तरह से ग्रहण करते हैं, उतना ही प्रभावी ढंग से आप संवाद कर
सकते हैं। नाज़िर हुसैन
की कहानी, पटकथा, संवाद,
निर्देशक कुंदन
कुमार के निर्देशन, शैलेन्द्र के
गीत तथा चित्रगुप्त के संगीत से पता चलता
है कि संवेदन व विचारों को व्यवस्थित करने
तथा दर्शकों को फिल्म का अभीप्सित
संदेश क्लासिकी अंदाज़ में
कैसे प्रसारित किया जा सकता है । इसमें
संचार-कला और शिल्प दोनों है । प्रभावी संपादन के लिए दोनों पहलुओं की आवश्यकता
होती है और जब आपको आवश्यक रूप से वाक्पटुता की कला नहीं सिखाई जाती है, तो आप भाषा के नियमों का अध्ययन और
अभ्यास कर सकते हैं और अपने शिल्प को बेहतर बना सकते हैं ताकि आप जल्दी व अधिक कुशलता से संपादित कर सकें तथा दोनों के कारण अधिक प्रभावी ढंग से संवाद कर
सकें। यह फिल्म भोजपुरी भाषा के आग्रही, कुशल व प्रभावी रूप को प्रस्तुत करती है | इसमें शब्द के रूप में शॉट्स हैं ।
बस शब्दों के रूप में एक लिखित भाषा के निर्माण खंड हैं, व्यक्तिगत शॉट्स फिल्म -भाषा के
निर्माण खंड हैं। अलग-अलग शॉट्स को संवाद के विभिन्न हिस्सों के रूप में माना जा
सकता है, विभिन्न
संदर्भों की उपस्थिति के साथ विभिन्न स्थितियों को ले आना । प्रभावी कहानी कहने के
लिए फिल्मकार अपनी शैली विकसित करता है और श्रोता उसको बखूबी ग्रहण करता है। ऐसा
लगता है, एक प्रश्न से
आगे उत्तर, और इस तरह कथा
का क्रम बन जाता है। यदि आप किसी एक प्रश्न पर बहुत लंबे समय तक रहते हैं, तो दूसरों को जवाब दिए बिना, कहानी थकाऊ हो जाती है और दर्शक
सुनना बंद कर देते हैं। इस फिल्म में ऐसा नहीं है ।... आकाश में हल्का सोने का
रंग है और बनारस के गंगा का तट है।
बहती नदी है, नावें हैं ,लोग
हैं, लय है ।
स्थानीय रंग से सजी नदी पर फिल्माए गीत से फिल्म आरम्भ होती है । पियरी आभा के साथ
। यहां फ़िल्मी भाषा में कौन- कौन है? किसी भी क्लोज-अप में फोकस का प्राथमिक बिंदु
विषय का चेहरा है। नायक, नायिका, नायक के पिता, नायिका के पिता, नायिका की मान, नायिका की सहेली को देखिये । यह
फ्रेमिंग आम तौर पर उस अनुभूति को उभारती है जिसे आप वास्तविक जीवन में
देखेंगे तो लगेगा कि आप किसी व्यक्ति के साथ बातचीत कर रहे थे।
क्लोज-अप किसी का अंतरंग चित्र है,
यह इस बात का
परिचायक है कि दर्शकों को स्वाभाविक रूप
से ऐसा लगता है जैसे वे प्रसिद्ध अभिनेताओं को 'जानते' हैं, वे उन के घर के हिस्सा हैं ! इस फिल्म में यदि
क्लोज़-अप किए बिना बहुत लंबे समय तक चलती होती
तो दर्शक जिस कहानी का अनुसरण कर रहे थे , उसका ट्रैक खोते हुए रुचि- विमुख हो जाते किन्तु इस फिल्म में इन
पद्धतियों का पालन किया गया है । दृश्य में
यह सहज रूप से दर्शाया गया है । कहानी
को आगे बढ़ाने के लिए क्या- कैसे किया
जाता है, यह देखने का
सबसे आसान तरीक़ा है - दर्शक अपने
दिमाग में अभिनयकर्त्ता व्यक्ति को रखना भूल जाएं और इसे समझें । अगर आप फिल्म देखते हुए संवाद
करना चाहते हैं कि 'गंगा मैया
तोहें' में क्या चल
रहा है तो आपको शायद गतिविधि को प्रदर्शित वाले विषय को समझने की जरूरत है । स्पष्ट करने के लिए, उन नाटकीय घटनाओं को सैकड़ों असतत
क्रियाओं में तोड़ दिया गया है जिन्हें
सक्रिय क्रियाओं द्वारा वर्णित किया जा सकता है (गाँव की पंचायत में नायिका के
पिता को धमकी देने के लिए, अस्पताल में
नायक के पिता को बचाने के लिए, और इसी तरह अन्य भी ....।) ऐसी क्रियाएं सूक्ष्म और आंतरिक हो गयी
लगती हैं। आईसीयू की स्थिति से अवगत होने के लिए यह पर्याप्त है, या नायिका के कोठे की मानसिकता को
शॉट्स के अनुक्रम की आवश्यकता के लिए पर्याप्त जटिलता दर्शाई गयी है। इस फिल्म की तकनीक में वाइडर
शॉट्स स्पष्ट रूप से एक व्यक्ति को एक वातावरण में दिखाते हैं। इसमें एक वातावरण
में एक विषय दिखाया गया है। कथा के विकास
के रूप में वस्तु या पर्यावरण की
अभिव्यक्ति के लिए , पास के एक पेड़ में एक पक्षी... और
इसी तरह के उपक्रम । एक लंबा रास्ता तय
करने के क्रम में पात्रों या यात्रियों की स्मृतियों को
जोड़ने की जानकारी है कि सूर्य अस्त हो रहा है फिर भी वे किसी भी गंतव्य की और अग्रसर हैं । यह
दिलचस्प है कि इस फिल्म में दर्शक यह समझ लेता है कि
इस विषय के साथ उसका एक अंतरंग संबंध है। दर्शक विषय से संबंधित के रूप में
अन्य उप कथाओं के साथ विषय की पहचान करने के लिए जाता है। एक यह रासायनिक प्रक्रिया है: इस
अंधेरे क्रम में, फिल्म की निर्मिति की प्रक्रिया जो आवश्यक चरणों में क्लोज-अप की
एक शृंखला में वर्णित है। फिल्म में
सूक्ष्म लेकिन महत्वपूर्ण रिश्ते गतिशीलता को व्यक्त करते हैं जो फिल्म की सृजित कथा के अर्थ में मौलिक
हैं। स्वाभाविक रूप से, दो से अधिक
विषयों वाले दृश्यों को सभी विषयों के सापेक्ष गतिशीलता को चित्रित करने के लिए
व्यापकता दी गई है । ये दो मिलन कोण एकल विषयों के रूप में वर्णनों के जोड़ को आकार दे देते हैं। इस फिल्म में
संज्ञा के रूप में शॉट्स के बारे में सोचा गया व
बिंदुओं को क्रिया के रूप में संपादित किया गया है । नृत्य और सिनेमा का एक साथ एक लंबा
इतिहास रहा है, विशेष रूप से
उन फिल्मों में जिनमें एक अभिव्यंजक प्रदर्शन की मांग होती
थी जो संवाद से आगे जाती थीं । फिल्म - 'गंगा मइया तोहे पियरी' लोक की क्लासिकी को
नृत्य रूप में लाती है । इसमें सिनेमा पर उनके प्रभाव के लिए नई गति मिलती है, साथ ही साथ
तकनीकी प्रतिभा, जिसमें कई
प्रदर्शन शामिल हैं जिन्हें केवल इस भोजपुरी
में फिल्माया गया था और बड़े पर्दे पर अब तक के सर्वश्रेष्ठ फुटवर्क का
प्रदर्शन किया गया था। हम उस दौर के चलचित्रों में नृत्य के वैकल्पिक रूपों का भी
पता लगाते हैं जो उभरती व पारम्परिक नृत्य शैलियों और उपसंस्कृतियों पर स्पॉटलाइट
डालते हैं; नाटकों द्वारा
परिपोषित होते हैं और आत्म अभिव्यक्ति और
सृजन की शक्ति का अनुभव कराते हैं।व्यापक
रूप से यह माना जाता है कि इस भोजपुरी फिल्म में अब तक का सर्वश्रेष्ठ संगीत
निरूपित है। लोकप्रिय नृत्य आधारित फिल्म जिसमें एक नर्तकी है, नर्तकी थी नहीं, परिस्थितियों ने जिसे वैसा बनाया है, उसे जीवन दुःख मई लगता है जिसे संयोग
से उसका पुराना प्रेमी साथी मिल जाता है। यह एक ऐसी फिल्म है जो नई रचनात्मक
ऊंचाइयों तक पहुंचने के लिए वर्ग के पूर्वाग्रह को खत्म करने और सहयोग को गले
लगाने का जश्न मनाती है, इसने भोजपुरी
क्षेत्र की पारम्परिक नृत्य शैली की शृंखला को गरिमा देती है । घुटन व मजबूरी का
अनुभव करते -करते नायिका अपने ग्रामीण
दुःख से भागने का इंतजार नहीं कर स्की । उसने अपना कठिन रास्ता तय किया (यानी वह ससुराल से भाग गयी) जहां उसके
साथ लांछन का व्यवहार व अमानवीय सख्ती की
गयी । फिर तो जहां वह मजबूरन लाइ जाती है- बनारस का कोठा- नृत्य उसकी मजबूरी व आंतरिक अभिव्यक्ति बन जाता
है । वह कहती है- वेश्या कोई होता नहीं , समाज बनाता है ! यानी समाज को चिह्नित करना
आवश्यक है !! 'गंगा मैया तोहे
पियरी चढ़इबों' फिल्म में गीत
की रचना शैलेन्द्र की है । गीतों में वस्तुत: सृजनात्मक कविता की उपस्थिति है और
कविता में जनजीवन के सौंदर्य एवं
वास्तविकता की प्रस्तुतियाँ हैं ।
सबसे पहले, गीतकार मुख्य
गीत में प्रिय की बात उठाते हुए भी एक
पारा सत्ता को भी संबोधित करता है जिसे
आमतौर पर निर्गुण ध्वनि माना जा सकता है । दर्शक इसके माध्यम कवि के कल्पनाशील लोक में प्रवेश कर सकता है। कवि कम एवं लयपूर्ण शब्दों के द्वारा मुखर क्षमताओं के
साथ भाषा में वस्तु को व्यक्त करते हुए
अभिव्यक्त करता व गाता है। ये शब्द इस तरह
से कार्य करते हैं कि रचना की भाषा एक संगीत रूप में बोल सकती है। इस फिल्म के गीत सामान्य भावों
की आवृत्ति का एक यथोचित रूप से आश्वस्त
प्रतिमान प्रस्तुत करते हैं। गीतकार
कलात्मक रूप से भाषा की अपनी रेखाओं को
हर्ष और विषाद के साथ रचता है, जैसे 'लुक छिप बदरा में चमके जइसे चनवा मोरा मुख दमके, मोरी कुसमी रे चुनरिया इतर गमके । 'हे गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो, सइयाँ से करि दे मिलनवा हाय राम, सइयाँ से करि दे मिलनवा हो राम। ना मोरे गुन ढंग ना
मोरे करनी , ना मोरे एको
गहनवा हो राम । खोल घुंघट जब पिया मुँह देखिहें, करबै मैं कवन बहनवा, हाय राम, करबै मैं कवन बहनवा, हो
राम' 'सोनवा के
पिंजरा में बंद भइल हाय राम, चिरई के जियरा उदास। टूट गइल डरिया छितर गइल खोतवा,
छूट गइल नील रे
आकाश । सोनवा के पिंजरा में '… मोरे करेजवा में पीर, काहें बसुरिया बजवले, अब
तो लगत मोरा
सोरवां साल, आदि। सबसे बड़ी बात - शैलेन्द्र
द्वारा बिदेसिया शैली को भी गीत में ले
आया गया है - 'हम त खेलत
रहलीं अम्मा जी के गोदिया से कहि गइले
सगही बियाह रे बिदेसिया । छव रे महीना कहि के गइले कलकतवा से, बीति गइले बारह बरीस रे बिदेसिया। 'इस गीत में वियोग शृंगार का वर्णन है
जो शैलेन्द्र को ख़ास स्थापित करता है, सहज भाषा में सामान्य तक रचनात्मक ढंग से संवेदन
को पहुंचाने के लिए। सुमन कल्याणपुर का गाया यह गीत भारत की सबसे श्रेष्ठ गायिका की श्रेणी में
रखने के लिए महत्त्वपूर्ण आधार है। लता मंगेशकर का गाया गीत 'लुक छिप बदरा में चमके जइसे चनवां' एक समान्त ऊंचाई पर भारतीय संगीत को
ले जाता है। इस तरह साहित्यपोषित गीतों की निरंतरता की भूमिका के बाद ही शैलेन्द्र
के मूल व्यक्तित्व का विकास पा सका । 'संगीत और गीत'
में आधुनिक
भारतीय फिल्मों के उत्पादन, जो हल्के मनोरंजन और आसान भावनाओं के
सक्षम वितरण से अधिक कुछ नहीं करने की इच्छा रखता है, ये गीत और उनका संगीत उसका उलट है।
इस फिल्म के गीत गहन भावनात्मक प्रवेश के साथ सूक्ष्म पर्यवेक्षण भी प्रस्तुत करते
हैं। कवि ने कल्पनाशीलता के साथ फिल्म के
केंद्रीय मूल्य को रचनात्मक बनाने में
नवीनता का परिचय दिया है। यह फिल्म अपने
समय, समाज, सोच तथा प्रौद्योगिकी को अतिक्रांत कर एक नई
सिनेमाई, साहित्यिक, सांगीतिक व सामाजिक समझ देती है।
इसीलिए एक क्लासिकी रचती है।