त्वरित न्याय का यही तकाजा था!

10-07-2020 19:18:08
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त्वरित न्याय का यही तकाजा था!


कानपुर वाले विकास दुबे प्रकरण में बेशक बहुत से किन्तु-परन्तु हैं। संभवतः इनमें से कुछ सही भी हों, लेकिन व्यवस्था संग गठजोड़ और गवाहों के मुकरने से बार-बार बच निकलने वाले शातिर अपराधियों का अंजाम यही होना चाहिए। त्वरित न्याय का भी यही तकाजा था, क्योंकि मामला कोर्ट-कचहरी जाता तो संभवतः अबकी बार भी गवाह नहीं मिलते या मुकर जाते और वह फिर धड़ल्ले से जरायम की दुनिया में बादशाह बन रौब गालिब करता फिरता, शायद किसी सदन की चौखट लांघकर माननीय भी बन जाता। आंकड़े और समीकरण तो मनमाफिक पहले ही जैसे थे, लेकिन विकास अबकी गच्चा खा गया। दरअसल वह योगीराज को भी पहलों जैसा समझने की भूल कर बैठा। उसके गलत आंकलन का परिणाम सामने है। वैसे दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री संतोष शुक्ला हत्याकांड के न्यायिक परिणाम और बिकरु गांव में 8 पुलिसकर्मियों की शहादत जैसी की पुनरावृत्ति रोकने के लिए ऐसा ही कुछ होना आवश्यक भी था। इतना ही नहीं खुद को जरायम का सरताज समझने, चंद सरपरस्तों के बूते व्यवस्था को बपौती मानने वालों को सबक सिखाने, कड़ा संदेश देने के लिए भी कुछ ऐसा ही किया जाना जरूरी था।

न्यायिक दृष्टिकोण से यह गलत हो सकता है, लेकिन सनातन मान्यता है कि पाप का घड़ा एक न एक दिन भरता ही है। जाने-अनजाने किए-हुए कृत्यो-कर्मों का फल यहीं भुगतना-भोगना पड़ता ही है। ऐसे अनेक उदाहरण देखे गए हैं और यदि गौर किया जाए तो वर्तमान में हमारे-आपके समक्ष कई मौजूद भी हैं। यह सनातन सत्य है कि अपराधी को महाकाल भी कभी क्षमा नहीं करते, उसे अकाल मृत्यु से नहीं बचाते। प्रत्यक्ष समझिए कि महाकाल की नगरी उज्जैन पहुंच कर भी विकास को क्षमादान-जीवनदान नहीं मिला, हां मुक्ति जरूर मिल गई।

रही बात सवाल उठने-उठाने की तो सवाल उठेंगे, उठते ही रहेंगे। जब 8 पुलिसवाले मुठभेड़ में शहीद हुए तब भी सवाल उठे। आरोपी पकड़ में नहीं आए तब भी उठे, पकड़े गए तब भी उठे। सवालों का क्या है, उनका तो काम ही उठना है। क्योंकि सवाल तो हमारे देश में सैनिकों पर हमला होने, आतंकियों पर कार्रवाई करने, सर्जिकल स्ट्राइक किए जाने, गलवान के बलवान सैनिकों की शहादत पर भी उठाए जाते रहे हैं। बेशक यह मुठभेड़ नीति और विधि सम्मत प्रतीत नहीं हो रही है, लेकिन कुछ घटनाएं-कार्य विधि और नीति-राजनीति को दरकिनार करते हुए देश, समाज और घर्म के रक्षार्थ-हितार्थ भी करने पड़ते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी भगवत् गीता में यही कहा है।

विकास मुठभेड़ मामले को लेकर कुछ पत्रकार, नेता, सामाजिक-मानवाधिकार कार्यकर्ता, अधिवक्ता और बुद्धिजीवी आदि-इत्यादि अब जाति-धर्म, कानून, मानवाधिकार, नैतिकता, सामाजिकता, राजनीति की बात कर रहे हैं और आगे भी करेंगे। उन्हें स्पष्ट रूप से समझना चाहिए कि छुटभैया बदमाश से दुर्दान्त हत्यारा बनने वाले विकास दुबे जैसे अपराधियों को बड़ा बनाने में हम सभी, जी हां, हम सभी (समाज, जाति, धर्म, राजनीति, मीडिया, पुलिस, प्रशासन) का हाथ होता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि यदि समाज, जाति, धर्म, राजनीति, मीडिया, पुलिस, प्रशासन का वरद हस्त न मिले तो कोई बदमाश चाहे कितना

भी शातिर और काईंयां क्यों न हो, चरम पर पहुंचने के बाद औसतन पांच-सात साल से ज्यादा जिन्दा नहीं रह सकता। इस औसतन वक्त में पुलिस या विरोधी बदमाश की गोली का शिकार हो ही जाता है। हां यदि उसे सरपरस्ती मिल जाए जो वह दशकों तक बेखौफ होकर रुतबा बुलन्दी के साथ जीता है, कानपुर वाले विकास दुबे जैसे दर्जनों माफिया सरगनाओं की तरह। खुदा ना खास्ता ऐसे माफिया सरगना यदि सियासत में दाखिल हो जाते हैं तो मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, आनंद मोहन, पप्पू यादव, रामा सिंह, अनंत सिंह जैसों की तरह सियासी बाना पहन कर नामचीन नेता बन जाते हैं। और कानून के रखवाले उन्हें पकड़ने के बजाए उनकी ड्यौढी पर सलामी देने लगते हैं, मीडिया उनके यशोगान में जुट जाता है, समाज उन्हें सिर-माथे बैठाता है, धार्मिक मंचों पर उनके आने से शोभा में चार चांद लग जाते हैं। जातियों का गौरव बढ़ता है, राजनीतिक पार्टियां उन्हें अपने रंग में रंगने को लालायित रहती हैं!

सवाल उठाने और टीआरपी बढ़ाऊ, राजनीतिक बवाल मचाने वालों को यह भी समझना चाहिए कि कुछ मामले विधि सम्मत हों न हों, लेकिन समाजसम्मत, लोकसम्मत जरूर होते हैं। हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश हैं और लोकतंत्र में लोक ही सर्वोपरि माना-समझा और जाना ही नहीं जाता होता भी है। तेलंगाना में बलात्कार के बाद हुआ मुठभेड़ कांड आपको याद होना चाहिए। आप चाहें तो अब भी लोकमत पूछ-जान लें, बहुमत हालिया कार्रवाई के मामले में भी पुलिस के पक्ष में ही आएगा।

बहरहाल जो हुआ सो हुआ, 8 पुलिस वालों की शहादत जाया नहीं गई, उनकी आत्मा को वास्तविक श्रद्धांजलि यही है। कानपुर वाला विकास दुबे तो अब इतिहास बन चुका है, लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस और सरकार का इम्तिहान अभी बाकी है। छुटभैया बदमाश विकास को दुर्दान्त अपराधी बनाने वाले उसके सरंक्षणदाताओं-सरपरस्तों यानी राजनीति व पुलिस-प्रशासन में छिपे बैठे समाज और व्यवस्था द्रोहियों पर भी शिकंजा कसा जाना चाहिए। कुल मिलाकर कतिपय कारणों से कुन्द हो चुका पुलिस का इकबाल इस मामले के बाद अब फिर से बुलंद हो सकेगा। जनमानस का भरोसा भी व्यवस्था पर कुछ मजबूत होगा।


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